बचपन में काफ़ी साल तक एक ही रेस्टोरेंट गए। काफ़ी बार गए होंगे। पर क्योंकि एक ही था, तो सारी यादें मिल गई हैं। अब वो सब एक ही याद है। कितना भी दिमाग़ पर ज़ोर डाल लूँ, उन्हें अलग नहीं कर पाऊँगा। करना भी नहीं चाहता। नोट सो इंपोर्टेंट ।एनीवे। हर बार एक ही ऑर्डर करते थे—बटर नान, दाल मखनी और कुछ पनीर की सब्ज़ी। सब पनीर की सब्ज़ी एक ही लगती थी। ठीक इन यादों की तरह। रेस्टोरेंट एक या दो फ्लोर ऊपर था। नीचे एक दरवाज़ा था और दरवाज़े के बाहर एक दरबान, जो हमेशा सलाम ठोकता था। ना कभी वो बदला, ना वो गेट, ना हमारा ऑर्डर और ना ही वो रेस्टोरेंट। बाहर खाने की प्रथा वहीं से शुरू हुई।
फिर जैसे-जैसे बड़े हुए, ऑर्डर भी बदलने लगे। किसी दिन पनीर टिक्का, कभी चाऊमीन, कभी मोमोज़ और अधिकतर छोले भटूरे। छोले भटूरों की ख़ास याद है एक। स्कूल से वापस आते हुए घर के नज़दीक ही एक बहुत फेमस छोले भटूरे वाला था। हाफ प्लेट 16 की और फुल 30 की। पनीर वाले भटूरे गंदे तेल से निकले और काले छोले। उफ़्फ़। अभी लिखते हुए ही भूख लग गई। हाफ प्लेट खा के घर चले जाते थे, क्योंकि घर पर भी खाना बना होता था। बहुत साल उन्हींसे कोलेस्ट्रॉल का लेवल बढ़ाया। बहुत सहयोग भी दिया उन भटूरों ने और माशाल्लाह, आज तक कोलेस्ट्रॉल की दवाइयां चल रही हैं। थैंक यू भटूरा। लव यू।
फिर दूसरे शहर गए और वहाँ भटूरे मिलने बंद हो गए। बहुत दिन रोया।ऐक्चुअली, आज तक रो रहा हूँ। दिल्ली की हवा मात्र एक टैक्स है उन स्वादिष्ट भटूरों के लिए। ऐसा मेरा मानना है। केजरीवाल चाहे माने या ना माने। बंबई में फिर खूब पाव भाजी और वड़ा पाव पेले। स्विगी ज़ोमैटो से पहले एक रेस्टोरेंट था जो उत्पम डिलीवर कर देता था। एकदम गर्म। पंद्रह मिनट में। एक फोन करो और हाज़िर। मात्र 40 रूपए। 50 देता तो चटनी लगा के खिला के जाता। इतना उत्पम खाया उधर से कि उसके बाद आज तक वापस खाया ही नहीं। जब उत्पम नहीं खाते थे तो चाइनीज़ मंगवाते थे, जिसे गर्म कर-कर के नॉन-स्टॉप 2 दिन खाते थे। इस प्रक्रिया को मैं प्यार से हक्का-थॉन बुलाता था। हाहा।
फिर जब पैसे आने लगे तो थोड़े ढंग के रेस्टोरेंट्स में 3-5-10 कोर्स मील भी खा लिए। नो पाम आयल। नो बटर। नो टेस्ट। ओनली मैटर। खाना है तो खाओ वरना 5000 रुपया प्लेट देके जाओ। उन सब से भी जब एक-आध साल में ऊब गए तो वापस भटूरे ढूँढने की तलाश चालू हो गई। भटूरे नहीं तो ढंग के नान ही मिल जाएँ तो दिन सफल हो जाए। और ऐसे कई रेस्टोरेंट ढूँढ भी लिए। पनीर इस वाले से, नान इससे और सिरके वाले प्याज़ इससे। डिलीवरी का खर्चा नहीं होगा क्योंकि मेम्बरशिप ले ली है स्विगी की। पैसे जो आ गए।
पर कल एक रेस्टोरेंट गया। काफ़ी शानदार नॉर्थ इंडियन खाना था। बटर लबालब, मेरी कुर्सी के अलावा, हर जगह तैर रहा था। वाह। खाया। वाह। पर कुछ तो ठीक नहीं था। खाते वक्त भी पता तो लग रहा था पर स्वाद ज़्यादा ज़रूरी था। आज सुबह बढ़िया उल्टियां कीं।
कुल मिलाकर बात यह है कि अब मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच गया हूँ जहाँ मुझे नान पचने बंद हो गए हैं। यह बात लिखते हुए जितना दुख मुझे हो रहा है, आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा। ना वो अब दरबान मेरी यादों में रहेगा, ना ही मेरे ऑर्डर। वैसे अभी तो बस लिखने के लिए सेंटी हो रहा हूँ। दो-चार बार और ट्राय कर के देखूंगा नान।
काफ़ी दिनों बाद कुछ हिंदी में लिखा। आप देवनागरी प्रेफर करते हैं या ट्रांसलिटरेशन? काफ़ी लोग हिंदी को इंग्लिश में लिख देते हैं। मुझे थोड़ा अजीब लगता है। मैं कोई प्यूरिस्ट नहीं हूँ, किसी भी एंगल से। लेकिन हिंदी को इस लिपि में पढ़ने का मज़ा कुछ और है। कभी-कभी मुझे लगता है, परसाई या शरद जोशी अगर मैं अंग्रेज़ी में पढ़ता तो शायद उतना इम्प्रेस नहीं होता। क्योंकि फिर मैं उनकी तुलना बाकी अंग्रेज़ी लेखकों से करने लगता। हालांकि वो उनसे बेहतर ही होते, पर फिर भी। मैं वो तुलना करना ही नहीं चाहता।
एक हिंदी लेख और एक अंग्रेज़ी लेख दो अलग-अलग व्यंजनों की तरह हैं। एक चूरमा है। एक चीज़केक है। दोनों ही मीठे हैं। दोनों ही आपको डायबिटीज देने में एक समान योगदान देंगे। पर किसी संडे दोपहर, ठंड में छत पर धूप सेंकते हुए आप दही चूरमा का जो लुत्फ उठा सकते हैं, वो चीज़केक शायद ही कभी दे पाए। ठीक वैसे ही, थके-हारे घर आकर फ्राइडे नाइट को जब आप नेटफ्लिक्स ऑन करें, अपने बिस्तर पर, तो चूरमा से ज़्यादा मजा चीज़केक ही देगा। हर दस मिनट में एक चम्मच।
खैर छोड़िए। और खाने के बारे में लिखा तो कहीं फिर से नान ही ना ऑर्डर कर दूँ। बाय द वे, नए साल में मेरा एक रेजोल्यूशन अभी तक चल रहा है। फोन से खाने की सारी डिलीवरी ऐप हटा दी हैं। देखें कितने दिन टिकता है। ये ऐप भी वो दरबान की याद दिलाती थी। सलाम ठोको, अंदर घुसो और रोज़ वही खाना मंगवाओ।
बाय-बाय दरबान, वन मोर टाइम।
भाई, क्या लिखता है तू, माँ कसम, सब कुछ आँखों के सामने आ जाता है। ये समझना मुश्किल हो जाता है कि ये ब्लॉग है या कोई फिल्म।
After reading this i realised hindi is not that tough to read, you just need to find some interesting articles which can help you to build your way towards hindi novels. Or maybe food made me read this whole article in one go😂.